Sunday, August 22, 2010

अदना सा ठिकाना.....!

कभी हम भी दीवाने थे......
कभी मौसम सुहाना था.....  
वो सपनों में खूबसूरत.......
कभी एक आशियाना था.....

मेरे ख्वाबों में बसती तुम......
वो भी क्या खूब जमाना था.......!


 


तरन्नुम की लहर का मैं भी.......
एक अदना सा ठिकाना था.......
पर सुरूर-ए-इश्क में मश्गूल......
हम ये जान न पाये........
तू शम्मा थी परवाने की.....
झूठा हर एक फ़साना था......!!

Saturday, June 26, 2010

हिंसा जरुरी तो नहीं.....!

  किसी भी कार्य को पूरा करने के लिये हमें कुछ न कुछ प्रयास तो करने ही पडते हैं......चाहे सही हो या गलत.....! पर अपनी मांगों को पूरा करने के लिये हिंसात्मक रवैया अपनाना शायद ठीक नहीं है.....पहले हमें बिना हिंसा के एक बार प्रयास तो कर लेना चाहिये....मैं ये नहीं कहता कि एक प्रयास के बाद आप हिंसा पर उतारू हो जायें.......जहां तक हो सके हमें मार-पीट,खून-खराबा आदि से बचना चाहिये......!!! जरा सोचिये.......अगर किसी समस्या का समाधान यदि आसानी से हो जाये तो कितना अच्छा हो बनिस्बत  हिंसा के......!!!!















 
           अब यहां पर एक और विचारणीय प्रश्न उठता है कि..........अगर तमाम कोशिशों के बावजूद भी ,सामने वाला आपकी बात मानने को तैयार नहीं है तो........?????????? तब आप वही कीजिये जो आपको उचित लगे.......आप  और कर भी क्या कर सकते हैं.......!!!! जब लोग आपकी विनम्रता और मजबूरी को आपकी कायरता समझने लगे तो उन्हें ये बताना जरूरी हो जाता है कि......आप क्या हैं और एक हद तक ही सहनशील हैं.......पर यहां पर भी ये ध्यान रहे कि जहां तक हो सके हिंसा से काम न लिया जाये.......!!!
   सहनशीलता की भी एक सीमा होती है........इंसान मजबूर हो जाता है.........इसमें उसे दोष देना शायद नाइंसाफ़ी होगी.......!!! ये तो सामने वाले व्यक्ति को समझना चाहिये कि मजबूरी,क्रोध और लालसा में इंसान कुछ भी करने को तत्पर रहता है.......!!! और एक बार जब इंसान अपना आपा खो देता है तो........हिंसा स्वाभाविक है......!!!!!

Monday, May 10, 2010

पुरानी सौगातें ......


खामोश धड़कन और बहकी सी सांसे 

खुशियों के मेले में मस्ती की राहें 
                                           
इंतजार में भटकी मासूम निगाहें

मन के भंवर की कुछ बीती सी यादें

सपनों में डूबी कुछ मीठी सी रातें

प्यार में खोयी हकीकत की बातें

दोस्तों के संग हुयी प्यारी मुलाकातें

क्यों याद आती हैं पुरानी सौगातें !

Sunday, April 25, 2010

सफ़लता....एक नये परिवेश में.....!

तेज रफ़्तार से बदलती हुयी आज की इस नवीन दुनिया में सफ़लता की सारी परिभाषा बदल सी गयी है.......!
आज हर इंसान को केवल सफ़लता चाहिये.....कैसे भी हो.....सफ़ल तो होना ही है.......कुछ भी करना पड़े.....! पर क्यों.....???? हम कुछ पाने की कोशिश में हर संभव प्रयास करते हैं.....फ़िर चाहे वह गलत ही क्यों न हो.....! और कभी-कभी तो नौबत कुछ ऐसी हरकत करने तक आ जाती है......जिसके बारे में यदि सही तरीके से सोंचा जाये तो बहुत कुछ हो सकता है......!आखिर हमें इतनी जल्दी क्या है.....????? अगर किसी काम को उचित रीति से किया जाये तो परिणाम निःसंदेह अच्छा होगा.......!
 

असफ़ल होने का ये मतलब तो नहीं कि हम सबसे कमजोर हैं......या हमारे पास संसाधनों की कोई कमी है .......! अंतर सिर्फ़ इतना है कि कहीं-न-कहीं कुछ कमी जरुर रह गयी होगी हमारे प्रयासों में.......! तो क्यों न इन कमियों को आत्ममंथन द्वारा सुधारने का प्रयास किया जाये.........! हो सकता है कि इस बार कुछ और अच्छा हो जाये.....! पर सबसे बड़ी बात तो ये है कि.....कौन पड़े इस लफ़ड़े में.....इस समय तो बस रात को सपना देखा और सुबह उठते ही लग गये जुगाड़ में.......किसी भी तरह ये होना चाहिये......! सोंचना तो है ही नहीं....... और इतना समय ही किसके पास है.......! समझ में  तो तब आता है जब समस्या सामने आती है......! फ़िर इस समस्या के समाधान के लिये एक और गलत तरीका खोजना सबसे बड़ी भूल होती है......!
आज सफ़ल होने के लिये सबसे जरुरी है.......संयम,साहस,आत्मविश्वास और मेहनत.........! सफ़लता के लिये कोई भी ऐसा लघु मार्ग नहीं है.....जिस पर चल कर हम कामयाबी हासिल कर लें........ये अलग बात है कि कभी-कभी हमें क्षणिक सफ़लता भले ही मिल जाये..........! पर कुछ पलों की खुशियों  के लिये अपने आदर्शों को भूल जाना कहां कि बुद्धिमानी है.......!
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Saturday, April 17, 2010

नजारे क्यों बदल गये.....?

मुलाकातों और सौगातों का वो दौर न बदला...,
फ़िर उनके प्रति हमारे नजारे क्यों बदल गये...?

रातों की तन्हाई ,गमों की गहराई याद है हमें...,
फ़िर भी अपनी नजर के इशारे क्यों बदल गये...?

















गम भुलाने की कोशिश में पीते रहे उम्र भर...,
फ़िर भी आज पीने के पैमाने क्यों बदल गये...?

मोहब्ब्त के हसीन सपने जो संजोये थे दिल में...,
फ़िर उन सपनों के लिये हमारे इरादे क्यों बदल गये...?

Saturday, April 10, 2010

कुछ पल....खुशी के....!

अपनों के बीच में रहते हुये शायद ही कभी इस बात का एहसास होता हो कि हमें सबसे ज्यादा खुशी कब मिलती है….????  पर कभी-कभी जीवन में कुछ पल ऐसे होते हैं जो हमें इतनी खुशियां देते हैं कि हम इन पलों को कभी भूल नहीं पाते.......ऐसे ही पलों का हमें अपने जीवन में सबसे ज्यादा इंतजार रहता है......और हो भी क्यों न......एक मुकाम पर पहुंचने के बाद  इंसान ऐसे ही कुछ हसीन पलों को याद करता है...!ये कुछ पल हमें कभी भी मिल सकते हैं......तो क्यों न इन खुशी के पलों को समेट के रखा जाये......और एक खुशहाल जिंदगी व्यतीत की जाये.....!        

                                                                                                     

     पर अपने  लिये खुशियां बटोरने के चक्कर में कहीं दूसरों की भावनायें आहत न हो……इस बात का खयाल रखना भी जरुरी है.....! आज इंसान केवल अपने तक ही सीमित हो गया है....दूसरों के बारे में सोचने के लिये न आपके पास वक्त है और न ही मेरे पास......क्यों.....शायद इसलिये कि अपनी तरक्की ही हमें खुशी देती है......पर जरा सोचिये अगर हमारे कुछ प्रयासों से किसी दूसरे के जीवन में भी खुशी के कुछ पल आ जायें तो कितना अच्छा रहेगा.....! और ऐसा हो सकता है.......बस जरूरत है अपने खुशी के कुछ पल दूसरों के साथ भी बांटे जायें......!


तो फ़िर क्यों न इसकी शुरुआत की जाये.......लेकिन कैसे....???? हमें कुछ समय निकालना होगा......दूसरों को समझने के  लिये......उनके बारे में सोचने के लिये......और अपने प्रयासों से दूसरों का जीवन भी खुशहाल बनाने के लिये.....!
फ़िर देखिये कि दूसरों की खुशियों  के साथ आपकी और हमारी खुशियां कैसे और भी हसीन हो जायेंगी....!!!

Saturday, March 13, 2010

अपनी भी एक पहचान होती......!

 "हम करते रहे तमाम कोशिशें,,,,
  काश कि अपनी भी एक पहचान होती....!


        कोई हमारे लिये भी जरा सा सोंचे,,,,
        काश कि अपनी ऐसी औकात होती....!













मिले हमें बेपनाह मोहब्बत,,,,
हमारे लिये भी ये सौगात होती....!


        डूबे ये दुनिया हमारे खयालों में,,,,
        अपने लिये भी कुछ बड़ी बात होती....!

सपनों के परिवेश में खोते हुये फ़िर,,,,
संग एक किसी के मुलाकात होती....!


















  मेहनत के रंग में रंग जाये जमाना,,,,
   ऐसे मौसम में फ़िर बरसात होती....!


                      उल्लास के पलों में सिमटे ये जीवन,,,,
                      और सारी कायनात मेरे साथ होती.....!"

Wednesday, January 20, 2010

बदलते हम.......?

   परिवर्तन  की दुनिया में विचारों का स्थान सर्वोपरि है....विचार ही मानव की आंतरिक एवं वाह्य मनः स्थितियों के बदलाव के लिये जिम्मेदार होते हैं......इन्हीं विचारों का मंथन करते हुये हम अपने अंदर हुये बदलावों को जब महसूस करते हैं.......तब ये पता चलता है कि  हम कितना बदल चुके हैं.....कल तक जो हमारे लिये महत्वपूर्ण थे,,,,,,, आज महज एक आवश्यकता बन गये हैं.....कल तक हम उनका सम्मान करते थे, आज सामने आने पर उनसे ही नजरें चुराते हैं.....आखिर क्यों.....? इसका जवाब अगर स्वयं आत्ममंथन किया जाये तो बेहतर होगा......वक्त के साथ हुये इस बदलाव के लिये जिम्मेदार कौन है.......?-हम , हमारे संस्कार ,  हमारी मानसिकता या और कुछ.....?
   शायद इसके जिम्मेदार हम खुद हैं......हमारी मानसिकता तो अपने आप ही बदल जाती है-समय और परिवेश के अनुसार ....पर आत्मसंयम द्वारा हम इस स्थिति को कुछ हद तक संभाल सकते हैं......
अब सवाल ये है कि आत्मसंयम और आत्ममंथन के लिये इतना समय किसके पास है......!.....हम इतने व्यस्त है कि इन सब बातों के लिये हमारे पास वक्त ही नहीं है........हां इंटरनेट , चैटिंग,मैसेजिंग,मूवीज.......इन सब के लिये वक्त की कोई कमी नहीं है........हम दिन और रात मोबाइल और इंटरनेट द्वारा दूर -दूर के दोस्तों से संपर्क में रहते हैं......पर अपने आस पास के व्यक्तियों के संपर्क में शायद ही रहते हों......इसके लिये भी हम ही उत्तरदायी हैं....हम वही करते हैं जिसमें हमें आनन्द आता है.....पर अपने लिये दूसरों की भावनाऒं के साथ खिलवाड करना भी सही नहीं है.......तो फ़िर इसका एक ही उपाय है .......खुद को इस काबिल बनाया जाये कि हम पर कोई उंगली न उठा सके .......खैर जो आसानी से हो नहीं सकता उस पर दिमाग क्यों खर्च किया जाये.....?





      पर कभी न कभी तो हमें इस बात की आवश्यकता पडेगी कि हम  भी दूसरों के लिये जीना सीखें..........तब शायद हमें जरूरत पडे -आत्मसंयम,आत्मविश्वास एवं आत्ममंथन की.......तब हमें एक और बदलाव की जरुरत पडेगी....पर उस समय ये इतना आसान नहीं होगा.......तो क्यों न अभी से इस दिशा में कुछ कदम उठाया जाये.......हम सुधरेंगे जग सुधरेगा....इस भावना को आत्मसात कर आवश्यकता है सपनों की दुनिया से हकीकत की दुनिया में आने की और......कुछ करने की....!

Monday, January 18, 2010

क्या जिंदगी थी ......!

       वक्त की इस तेज रफ़्तार से गुजरते  हुये कभी -कभी ये सोंचता हूं कि..... ...क्या जिंदगी थी .......जब हम छोटे थे .......और हमारे पास खेलने , खाने और चिल्लाने के अलावा कोई भी काम न था........ दिन भर घूमना , खेल- कूद और बात-बात पर रोना ......बस यही थी हमारी दिनचर्य़ा .......क्या रात और क्या दिन ....समय की चिंता किसे थी .......सब अपने में ही मस्त रहते थे.....वो गर्मी के मौसम में सडकों पर उछलना.......बारिश की छीटों के संग-संग मचलना.........ठण्डी में बिस्तर के अंदर सिमटना ...........पैसे पाते ही चाकलेट खरीदना ......तोतली आवाज में गाने सुनाना......मम्मी का जबरजस्ती जम के नहलाना......पापा की बातों में सपने ही सपने........हकीकत की दुनिया में सब लगते थे अपने ........रोने पर मिलता था अपनों का प्यार.......घर में था हमारा एक प्यारा संसार.........दीदी की राखी की मीठी मिठाई......होली के रंगों से जमकर धुलाई........पटाखों की आहट से डर-डर के डरना .........उपहारों के लिये लडना-झगडना....... क्या जिंदगी थी.......!
       फ़िर इस हसती , मुस्कुराती, खेलती -खाती जिंदगी में कुछ विराम सा लग गया.......जब जन्म लिया है तो कुछ तो करना ही पडेगा........सबसे पहले  अध्ययन.......अब बस्ता लेकर विद्यालय जाने लगे.......कुछ हद तक हमारी  दुनिया होमवर्क और क्लास वर्क में ही सिमट गयी.......क्या बतायें.........अब तो वो मस्ती भी कम होने लगी थी.........वो धमाचौकडी करने पर अब उपदेश मिलने लगे थे......कोई गलत काम हो जाने पर पिटने का डर तो रहता ही था.......फ़िर भी बचपन की आदतें थीं......जल्दी कहां छूटने वाली थीं......पर वक्त के साथ -साथ सब कुछ बदल जाता है........हम भी अब बदल चुके थे ......अच्छे और बुरे की कुछ समझ आ गयी थी......यहां तक भी.....क्या जिंदगी थी.......!





     अब हम दसवीं में थे ......सब का बस एक ही कहना था......बेटा मन लगा के पढो......और टाप करो.....अब इन लोगों को कौन समझाये.......इससे अच्छा था कि इनकी हां में हां मिलाते रहो और कहो कि प्रयास तो पूरा है........परिणाम आने पर हमेशा दूसरों से तुलना करना तो आम बात थी.......सबकी जुबान से यही निकलता थ कि काश थोडी सी मेहनत और कर लेते.....इसी तरह इण्टरमीडिएट में आ गये...........अब तो नौकरी पाने के लिये भी पढना था.....पर होनी को कौन टाल सकता है.........इस बार भी वही पुराना वाक्य .........काश थोडा सा और पढ लेते .......चलो अब जो हो गया सो हो गया.........अब ये कहना कि .......क्या जिंदगी थी....बेईमानी होगी.....अब तो बस जैसा चल रहा है .....चलने दो.......!
     और अब मैं ग्रेजुएशन कर रहा हूं.......अब तो ऐसा लगता है कि मानो सारी जिम्मेदारियां मेरे ही ऊपर हैं.........अब तो वक्त ही नहीं मिलता है....उन पुरानी बातों को  फ़िर से दोहराने का.......हां कभी-कभी ऎसे ही याद आ जाने पर मन पुनः उसी अवस्था में जाने के  लिये व्याकुल रहता है.....|
      आज भी लगता है कि .....क्या जिंदगी थी....!