Wednesday, January 20, 2010

बदलते हम.......?

   परिवर्तन  की दुनिया में विचारों का स्थान सर्वोपरि है....विचार ही मानव की आंतरिक एवं वाह्य मनः स्थितियों के बदलाव के लिये जिम्मेदार होते हैं......इन्हीं विचारों का मंथन करते हुये हम अपने अंदर हुये बदलावों को जब महसूस करते हैं.......तब ये पता चलता है कि  हम कितना बदल चुके हैं.....कल तक जो हमारे लिये महत्वपूर्ण थे,,,,,,, आज महज एक आवश्यकता बन गये हैं.....कल तक हम उनका सम्मान करते थे, आज सामने आने पर उनसे ही नजरें चुराते हैं.....आखिर क्यों.....? इसका जवाब अगर स्वयं आत्ममंथन किया जाये तो बेहतर होगा......वक्त के साथ हुये इस बदलाव के लिये जिम्मेदार कौन है.......?-हम , हमारे संस्कार ,  हमारी मानसिकता या और कुछ.....?
   शायद इसके जिम्मेदार हम खुद हैं......हमारी मानसिकता तो अपने आप ही बदल जाती है-समय और परिवेश के अनुसार ....पर आत्मसंयम द्वारा हम इस स्थिति को कुछ हद तक संभाल सकते हैं......
अब सवाल ये है कि आत्मसंयम और आत्ममंथन के लिये इतना समय किसके पास है......!.....हम इतने व्यस्त है कि इन सब बातों के लिये हमारे पास वक्त ही नहीं है........हां इंटरनेट , चैटिंग,मैसेजिंग,मूवीज.......इन सब के लिये वक्त की कोई कमी नहीं है........हम दिन और रात मोबाइल और इंटरनेट द्वारा दूर -दूर के दोस्तों से संपर्क में रहते हैं......पर अपने आस पास के व्यक्तियों के संपर्क में शायद ही रहते हों......इसके लिये भी हम ही उत्तरदायी हैं....हम वही करते हैं जिसमें हमें आनन्द आता है.....पर अपने लिये दूसरों की भावनाऒं के साथ खिलवाड करना भी सही नहीं है.......तो फ़िर इसका एक ही उपाय है .......खुद को इस काबिल बनाया जाये कि हम पर कोई उंगली न उठा सके .......खैर जो आसानी से हो नहीं सकता उस पर दिमाग क्यों खर्च किया जाये.....?





      पर कभी न कभी तो हमें इस बात की आवश्यकता पडेगी कि हम  भी दूसरों के लिये जीना सीखें..........तब शायद हमें जरूरत पडे -आत्मसंयम,आत्मविश्वास एवं आत्ममंथन की.......तब हमें एक और बदलाव की जरुरत पडेगी....पर उस समय ये इतना आसान नहीं होगा.......तो क्यों न अभी से इस दिशा में कुछ कदम उठाया जाये.......हम सुधरेंगे जग सुधरेगा....इस भावना को आत्मसात कर आवश्यकता है सपनों की दुनिया से हकीकत की दुनिया में आने की और......कुछ करने की....!

Monday, January 18, 2010

क्या जिंदगी थी ......!

       वक्त की इस तेज रफ़्तार से गुजरते  हुये कभी -कभी ये सोंचता हूं कि..... ...क्या जिंदगी थी .......जब हम छोटे थे .......और हमारे पास खेलने , खाने और चिल्लाने के अलावा कोई भी काम न था........ दिन भर घूमना , खेल- कूद और बात-बात पर रोना ......बस यही थी हमारी दिनचर्य़ा .......क्या रात और क्या दिन ....समय की चिंता किसे थी .......सब अपने में ही मस्त रहते थे.....वो गर्मी के मौसम में सडकों पर उछलना.......बारिश की छीटों के संग-संग मचलना.........ठण्डी में बिस्तर के अंदर सिमटना ...........पैसे पाते ही चाकलेट खरीदना ......तोतली आवाज में गाने सुनाना......मम्मी का जबरजस्ती जम के नहलाना......पापा की बातों में सपने ही सपने........हकीकत की दुनिया में सब लगते थे अपने ........रोने पर मिलता था अपनों का प्यार.......घर में था हमारा एक प्यारा संसार.........दीदी की राखी की मीठी मिठाई......होली के रंगों से जमकर धुलाई........पटाखों की आहट से डर-डर के डरना .........उपहारों के लिये लडना-झगडना....... क्या जिंदगी थी.......!
       फ़िर इस हसती , मुस्कुराती, खेलती -खाती जिंदगी में कुछ विराम सा लग गया.......जब जन्म लिया है तो कुछ तो करना ही पडेगा........सबसे पहले  अध्ययन.......अब बस्ता लेकर विद्यालय जाने लगे.......कुछ हद तक हमारी  दुनिया होमवर्क और क्लास वर्क में ही सिमट गयी.......क्या बतायें.........अब तो वो मस्ती भी कम होने लगी थी.........वो धमाचौकडी करने पर अब उपदेश मिलने लगे थे......कोई गलत काम हो जाने पर पिटने का डर तो रहता ही था.......फ़िर भी बचपन की आदतें थीं......जल्दी कहां छूटने वाली थीं......पर वक्त के साथ -साथ सब कुछ बदल जाता है........हम भी अब बदल चुके थे ......अच्छे और बुरे की कुछ समझ आ गयी थी......यहां तक भी.....क्या जिंदगी थी.......!





     अब हम दसवीं में थे ......सब का बस एक ही कहना था......बेटा मन लगा के पढो......और टाप करो.....अब इन लोगों को कौन समझाये.......इससे अच्छा था कि इनकी हां में हां मिलाते रहो और कहो कि प्रयास तो पूरा है........परिणाम आने पर हमेशा दूसरों से तुलना करना तो आम बात थी.......सबकी जुबान से यही निकलता थ कि काश थोडी सी मेहनत और कर लेते.....इसी तरह इण्टरमीडिएट में आ गये...........अब तो नौकरी पाने के लिये भी पढना था.....पर होनी को कौन टाल सकता है.........इस बार भी वही पुराना वाक्य .........काश थोडा सा और पढ लेते .......चलो अब जो हो गया सो हो गया.........अब ये कहना कि .......क्या जिंदगी थी....बेईमानी होगी.....अब तो बस जैसा चल रहा है .....चलने दो.......!
     और अब मैं ग्रेजुएशन कर रहा हूं.......अब तो ऐसा लगता है कि मानो सारी जिम्मेदारियां मेरे ही ऊपर हैं.........अब तो वक्त ही नहीं मिलता है....उन पुरानी बातों को  फ़िर से दोहराने का.......हां कभी-कभी ऎसे ही याद आ जाने पर मन पुनः उसी अवस्था में जाने के  लिये व्याकुल रहता है.....|
      आज भी लगता है कि .....क्या जिंदगी थी....!